डॉ. कमलेश कुमार मिश्र: उत्तराखण्ड राज्य निर्माण से लेकर आज तक एक मुद्दा राज्य की राजनीति में शाश्वत रूप से विघमान है, वह है पलायन। राज्य आंदोलन के समय कोदा—झंगोरा खाकर उत्तराखण्ड बनाने का नारा लगाने वाले आंदोलनकारियों का एक बहुत बड़ा वर्ग आज पाँच बिस्वा जमीन का टुकड़ा खोजकर राजधानी परिक्षेत्र में बस चुका है। राज्य बनने के बाद तो कई गाँव उजाड़—वीरान और भूतहा हो चुके हैं।
लेकिन अपने आप को संभ्रान्त, शिक्षित, समझदार और स्वस्थ दिखाये रखने की इस भेड़चाल में सभी लोग शामिल हों ऐसा भी नहीं हैं। अभी भी कुछ सरल और सौम्य लोग हैं जिनकी मेहनत इन सयाने और सुविधाभोगी लोगों को आईना दिखा रही है।
ऐसी ही एक शख्सियत हैं अनिल रावत, जिनका गाँव गौरीकोट इडवालस्यूं पट्टी के ओजली (खांड्यूसैंण) ग्रामसभा के अन्तर्गत है। गौरीकोट गढ़वाली भाषा के प्रख्यात साहित्यकार भगवती प्रसाद नौटियाल की भी जन्मस्थली रहा है।
नब्बे के उत्तरार्ध (1996—97) में अनिल रावत ने भी उत्तराखण्ड के आम युवा की तरह फौज में हाथ आजमाया, लेकिन हाईट बार—बार आड़े आ गयी। फिर नौकरी के लिए भटकाव शुरु हुआ। दिल्ली में हाड़तोड़ मेहनत करते हुए उन्हें अहसास हुआ कि जब पसीना ही बहाना है, तो वह अपने खेतों में भी बहाया जा सकता है, कम से कम वहाँ अपनी मिट्टी की सौंधी महक तो साथ होगी। फिर शुरु हुआ बंजर पडे़ खेतों और अनिल रावत के बीच संघर्ष और डेढ़ दशक की कमरतोड़ मेहनत के बाद इस आग में तपकर कुंदन बनकर निकले अनिल रावत।
यही कारण है कि आज उनके प्रताप का मंद समीर इडवालस्यूं, गंगवाड़स्यूं, पैडूलस्यूं, नांदलस्यूं और सितोनस्यूं को ही नहीं पूरे गढ़वाल मण्डल के उच्चाधिकारियों को भी सम्मोहित कर रहा है। पिछले पाँच—छह वर्षों में पौड़ी के कोई जिलाधिकारी और कमिश्नर ऐसे नहीं रहे, जिन्होंने उनके क्षेत्र का दौरा न किया हो।
बयालीस वर्षीय अनिल रावत ने गौरीकोट स्वयं सहायता समूह के नाम से क्षेत्र के बीस से अधिक परिवारों को रोजगार भी दिया है। वे सौ नाली से अधिक जमीन पर सब्जियों का उत्पादन करते हैं, जिसका विपणन रोज निकटवर्ती बाजारों पौड़ी, सत्येखाल, खांण्ड्यूसैंण और खौलाचौरी में होता है। समूह द्वारा मत्स्य पालन, कुक्कुट पालन और फल उत्पादन भी किया जाता है और प्राप्त धनराशि को ईमानदारी के साथ समूह में बांटा जाता है।
अनिल रावत एक मेहनतकश कृषक के अतिरिक्त इलैक्ट्रिशियन, प्लम्बर, ड्राइविंग ट्रेनर, गीतकार, अभिनेता और राजमिस्त्री भी हैं। इसी का नतीजा है कि उनका पूरा परिक्षेत्र फल, अनाज और सब्जियों के साथ रात्रि को रोशनी से भी गुलजार रहता है। सिंचाई के लिए नलों को फव्वारों का रूप दिया गया है, समूह के अधिकांश सदस्य स्त्री—पुरूष वाहन चलाते हैं। और गीतकार अनिल रावत के लिखे गीत 'जै भारत जै उत्तराखण्ड' के फिल्मांकन में अभिनय भी कर चुके हैं। और इनके खेतों की दीवारें सुव्यवस्थित रूप से चिनी गयी हैं।
इसी का नतीजा है कि राज्य और जनपद की कई संस्थाएँ उन्हें पुरस्कृत कर चुकी हैं। उन्हें जनपद स्तर पर सर्वश्रेष्ठ मत्स्य पालक, उघान विभाग द्वारा कृषक श्री और राज्य सरकार द्वारा यूथ आइकॉन एवार्ड से भी नवाजा जा चुका है।
बावजूद इसके अनिल में लेश मात्र का भी अहंकार नहीं है। वे सौम्यता, शिष्टता और विनम्रता की जीती जागती प्रतिमूर्ति हैं और भाषा में ऐसी मिठास है कि जो एक बार उनसे मिले उनका मुरीद बन जाय।
वे सुबह चार बजे उठते हैं, एक डेढ़ घण्टे योग करते हैं और उसके बाद पन्द्रह—सोलह घंटे हाड़ तोड़ मेहनत करते हैं। उन्हें देखकर एक राज्य के उस सुखी और प्रसन्नचित्त किसान की याद हो आती है, जिसे खोजने के लिए राजा ने अपना पूरा तंत्र लगा दिया था।
अनिल में देशभक्ति कूट—कूट कर भरी है। इसीलिए वे राष्ट्रीय पर्वों में अपने घर पर ध्वजारोहण अवश्य करते हैं। वे भारत स्वाभिमान अभियान के सक्रिय सदस्य हैं। वे योग और बाबा रामदेव के परम भक्त हैं। इसका वे एक बड़ा कारण बताते हैं कि वे बचपन से कई वर्षाें तक माइग्रेन से पीड़ित रहे। परन्तु नियमित योग के बाद अब वह जड़ से ही समाप्त हो चुका है।
अनिल रावत रिवर्स माइग्रेसन के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। छोटे कद के इस बडे़ आदमी ने अपनी लगन, मेहनत, उघमिता, कार्यकुशलता और ईमानदारी के दम पर वह मुकाम प्राप्त कर लिया है, जहाँ वे हम सब के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उनके पदचिह्नों पर चलकर कई युवा स्वरोजगार के जरिये अपनी ही नहीं राज्य की आर्थिकी भी बेहतर कर सकते हैं।
राज्य सरकार को भी चाहिए कि वे पलायन कर मुकाम पाने वालों को नहीं, बल्कि रिवर्स माइग्रेसन के बाद स्वरोजगार के जरिये राज्य की आर्थिकी को मजबूत करने वाले कर्मयोगियों को अपने विज्ञापनों में नायक की तरह पेश करें। इन मामलों में मीडिया को भी अपनी भूमिका सुधारने की आवश्यकता है।
पलायन को आईना दिखाते अनिल रावत